राजनीतिक कार्टून पर टीवी पत्रकार ने की पहली बार PhD

टेलीविजन पत्रकार डॉ प्रवीण तिवारी देश की पहली ऐसी शख्सियत बने हैं जिन्होंने भारतीय राजनीति में कार्टून के महत्व पर महत्वपूर्ण रिसर्च करते हुए देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर से पीएचडी की है। ख़ास बात ये है कि इन्होंने इसे किताब के रूप में पेश किया है।
आज के दौर में भी कई अच्छे कार्टूनिस्ट मौजूद हैं लेकिन पत्रकारिता के इस मजबूत हथियार के और बेहतर इस्तेमाल की गुंजाइश अब भी बरकरार है। इस किताब से छात्रों को कार्टून्स की बेहतर समझ मिल पाएगी

डॉ. तिवारी के मुताबिक पाठक तो कार्टून्स को बहुत पसंद करते हैं और इनका जबरदस्त असर भी होता है लेकिन लक्ष्मण और तैलंग के स्तर की कार्टूनिंग अब नहीं हो पा रही है। इसकी बड़ी वजह कार्टून की संपादकीय समझ की कमी है। इस पुस्तक के जरिए पत्रकारिता के छात्रों को कार्टून्स के बारे में बेहतर समझ मिल पाएगी।

डॉ. प्रवीण तिवारी खुद आर. के. लक्ष्मण और सुधीर तैलंग के सान्निध्य में एक कार्टून वर्कशॉप कर चुके हैं। इसी वर्कशॉप के दौरान उन्हें एहसास हुआ कि कार्टून से जुड़ा कोई भी साहित्य मौजूद नहीं है।

इसके बाद उनके गाइड और वर्तमान में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. मानसिंह परमार ने उन्हें इस शोध को पीएचडी के तौर पर रखने के लिए प्रेरित किया। इस किताब में लक्ष्मण, तैलंग, उन्नी, लहरी, शेखर गुरेरा, सतीश आचार्य जैसे कई नामी भारतीय कार्टूनिस्टों के इंटरव्यूज हैं।

तैलंग ने इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है। उनके मुताबिक कार्टुनिस्ट का काम 70-80 के दशक में आने वाली फिल्मों के हीरो की तरह है। फिल्म की शुरुआत से अंत के कुछ पहले तक विलेन हीरो के परिवार पर तमाम अत्याचार करता है।

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अंत में जब हीरो विलेन की पिटाई करता है तो दर्शक भी एक गुस्से का अनुभव करता है और विलेन को पिटते देख उसे भी सुकून मिलता है। सिस्टम को लेकर आम आदमी का भी एक गुस्सा होता है और अच्छे कार्टून को देखकर सिस्टम पर की गई चोट का सुकून पाठक को भी ठीक उसी तरह मिलता है ।

सुधीर तैलंग ने इस शोध के दौरान ये गंभीर बात भी रखी कि कार्टूनिस्ट को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं क्योंकि उसके पास व्यंग्य की ताकत होती है। जो बात संपादकीय में नहीं लिखी जा सकती या फिर जिसे कोई अन्य पत्रकार नहीं कह सकता वो कार्टूनिस्ट आसानी से कह जाता है। वो कई बार देश के बड़े बड़े राजनेताओं पर कठोर टिप्पणी भी कर सकता है। यही वजह है कि कार्टूनिंग पत्रकारिता का सबसे अहम हिस्सा माना जाना चाहिए।

इस किताब में शंकर, रंगा, अबु, मारियो जैसे गुजरे जमाने के कई जाने माने कार्टूनिस्टों के जीवन पर भी विस्तार से जानकारियां दी गई हैं।

यदि मीडिया इंस्टीट्यूट्स इस विषय को भी गंभीरता से लेना शुरू करेंगे तो देश में एक बार फिर लक्ष्मण और तैलंग जैसे कई कार्टूनिस्ट देखने को मिलेंगे। ये किताब देश के इन दोनों महान कार्टूनिस्टों को एक श्रद्धांजलि भी है।