अमेरिका में आ गई जो बाइडेन और कमला हैरिस की जोड़ी- भारत पर क्या होगा असर ? By Santosh Pathak

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की हार के साथ ही भारत-अमेरिकी संबंधों को लेकर कई तरह की भविष्यवाणियां की जा रही है। भारत के अंदर एक बड़ा तबका ट्रंप की हार को नरेंद्र मोदी की हार के तौर पर प्रचारित कर रहा है। यह राजनीतिक आरोप लगाया जा रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप का चुनावी प्रचार करके प्रधानमंत्री मोदी ने जो गलती की थी , उसका खामियाजा अब भारत को उठाना पड़ सकता है। लेकिन क्या वाकई ऐसा होने जा रहा है ? क्या वाकई अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे का असर भारत-अमेरिकी संबंधों पर नकारात्मक ढंग से पड़ने जा रहा है ? क्या वाकई जो बाइडेन भारत के प्रति अमेरिका की नीति में कोई बड़ा बदलाव करने की सोच रहे हैं ? इन तमाम सवालों का विश्लेषण कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार संतोष पाठक ।

By संतोष पाठक, वरिष्ठ पत्रकार

आधुनिक विश्व के सबसे प्राचीन और ताकतवर लोकतांत्रिक देश का अगला राष्ट्रपति कौन होगा , इसे लेकर तस्वीर अब पूरी तरह से साफ हो गई है। हालांकि इस बार चुनावी प्रक्रिया और मतगणना के दौरान अमेरिकी जनता और वहां के राजनेताओं को एक नए तरह के विवादित और कटु दौर का सामना करना पड़ा लेकिन आखिरकार लोकतंत्र की जीत हुई । अमेरिकी जनता ने यह साफ कर दिया कि वो अगले 4 साल के लिए अपनी किस्मत का फैसला करने का अधिकार वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से छीनकर डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडेन को दे रहे हैं।

कई नए रिकार्ड के साथ अमेरिका की कमान संभालेंगे बाइडेन

77 वर्षीय बाइडेन अमेरिकी इतिहास के सबसे उम्रदराज राष्ट्रपति होंगे। इससे पहले यह रिकार्ड डोनाल्ड ट्रंप के नाम था, जो 70 वर्ष की उम्र में 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति बने थे। बाइडेन की इस चुनावी जीत के साथ ही डोनाल्ड ट्रंप पिछले 3 दशक के अमेरिकी इतिहास के ऐसे राष्ट्रपति बन गए हैं जो राष्ट्रपति रहते हुए अपना चुनाव हारे हो। इससे पहले 1992 में जॉर्ज बुश सीनियर राष्ट्रपति रहते हुए अपना चुनाव बिल क्लिंटन से हार गए थे। इसके बाद बिल क्लिंटन , जॉर्ज बुश जूनियर और बराक ओबामा ने फिर से चुनाव जीता था। ये तीनों लगातार 2 बार चुनाव जीतकर 8-8 वर्ष तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे थे। सबसे दिलचस्प तथ्य तो यह है कि अमेरिका के पिछले 100 वर्षों के इतिहास में अब तक सिर्फ 4 राष्ट्रपति ही ऐसे हुए हैं , जिन्हे अपने दूसरे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।

120 सालों में हुआ सर्वाधिक मतदान

अमेरिका 4 जुलाई , 1776 को एक देश के रूप में आजाद हुआ था। आजादी के बाद से ही अमेरिका ने कठोर लोकतंत्र का रास्ता चुना। अमेरिकी संविधान कितनी कठोर प्रक्रिया का पालन करता है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब दुनिया विश्व युद्ध में उलझी हुई थी तब भी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव रद्द नहीं हुए थे। इस बार का चुनाव इस मायनें में काफी खास रहा कि पहली बार अमेरिकी मतदाताओं ने इतनी बड़ी तादाद में वोट किया। इस बार अमेरिका के 16 करोड़ से ज्यादा लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। 120 सालों के अमेरिकी इतिहास में यह पहला ऐसा चुनाव है , जिसमें सबसे अधिक मतदान हुआ। 120 साल पहले 1900 के चुनाव में 73 फीसदी से ज्यादा मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। इस बार 67 फीसदी से ज्यादा अमेरिकी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है।

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भारत ने बाइडेन को दी बधाई – दोनो देशों के रिश्तों में क्या आएगा बदलाव ?

डोनाल्ड ट्रंप की चुनावी हार के बाद से ही भारत-अमेरिकी संबंधों को लेकर कई तरह की चर्चाएं चल रही है। भारत के अंदर एक बड़ा तबका ट्रंप की हार को नरेंद्र मोदी की हार के तौर पर प्रचारित कर रहा है। यह राजनीतिक आरोप लगाया जा रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप का चुनावी प्रचार करके प्रधानमंत्री मोदी ने जो गलती की थी , उसका खामियाजा अब भारत को उठाना पड़ सकता है।

लेकिन क्या वाकई ऐसा होने जा रहा है ? क्या वाकई अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे का असर भारत-अमेरिकी संबंधों पर नकारात्मक ढंग से पड़ने जा रहा है ? क्या वाकई जो बाइडेन भारत के प्रति अमेरिका की नीति में कोई बड़ा बदलाव करने की सोच रहे हैं ? दरअसल , ऐसा कहने वालों को न तो अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक परंपरा का ज्ञान है और न ही जो बाइडेन के इतिहास का। राजनीतिक तौर पर जिस तरह के भी आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाएं लेकिन दो देशों का आपसी संबंध जब निर्धारित होता है तो उसके पीछे कई तरह की वजहें होती हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बाइडेन के साथ अपनी तस्वीर को सोशल मीडिया पर शेयर करते हुए जिस अंदाज में अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति को बधाई दी है , उससे भविष्य की कहानी का अंदाजा तो हो ही रहा है।

जो बाइडेन का अनोखा इतिहास और भारत

अमेरिका में ज्यादातर राष्ट्रपति ऐसे बने हैं जिन्हे पहले से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का कोई व्यवहारिक अनुभव नहीं हुआ करता था। इसलिए कई बार अमेरिकी राष्ट्रपति के बारे में यह मजाक में कहा भी जाता है कि 4 वर्ष के अपने पहले कार्यकाल में वो जो सीखते हैं उसी को 4 वर्ष के दूसरे कार्यकाल में अमली-जामा पहनाते हैं। इस मामले में जो बाइडेन को अमेरिकी इतिहास का अनोखा राष्ट्रपति कहा जा सकता है।

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बाइडेन 2008 में अमेरिका के उपराष्ट्रपति चुने गए थे। 2012 में अमेरिकी जनता ने उन्हे दोबारा अपना उपराष्ट्रपति चुना था। बराक ओबामा के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान 8 वर्षों तक बाइडेन ने उपराष्ट्रपति के तौर पर अमेरिकी प्रशासन के कामकाज के तौर-तरीकों को गहराई से देखा है, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को गहराई से समझा है और उन्हे एशिया में शांति की अहमियत और भारत के प्रभाव का अंदाजा बखूबी है। इसलिए दोनो देशों के संबंधों में 360 डिग्री जैसा कोई बड़ा बदलाव आएगा , इसकी कल्पना करना भी बेमानी है।

चीन-पाकिस्तान-आतंकवाद के मुद्दें पर मिलकर ही लड़ना होगा भारत और अमेरिका को

70 के दशक में सोवियत संघ के साथ चल रहे शीत युद्ध में उसे मात देने के लिए अमेरिका ने चीन के साथ अपने संबंधों को बढ़ाना शुरू किया। चीन को संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता दिलवाई। नाटो के देशों को चीन के साथ राजनयिक और व्यापारिक संबंध बनाने और बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के कुछ सालों बाद ही अमेरिका को यह समझ में आ गया था कि चीन आने वाले दिनों में सोवियत संघ से भी बड़ा खतरा बनने जा रहा है । पहले आतंकवाद ने अमेरिका की चुनौती बढ़ाई और फिर चीन के आक्रामक व्यापारिक विस्तार ने अमेरिका की हालत खराब कर दी। रही-सही कसर कोरोना काल ने निकाल दी।

वैसे तो अमेरिका 1950 के बाद से ही भारत को लगातार अपने पाले में लाने की कोशिश करता रहा है लेकिन गुट-निरपेक्ष देशों का संगठन बनाकर भारत ने उस समय दुनिया में जो अपनी अलग पहचान बनाई , उसका फायदा भारत को लगातार मिला है । चीन से धोखा खाने के बाद अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया के कई ताकतवर देश भी अब भारत की तरफ उम्मीदों से देख रहे हैं। जापान सहित एशिया के कई देश चीन की विस्तारवादी नीति से परेशान है तो वहीं ब्रिटेन , जर्मनी, फ्रांस जैसे यूरोपीय देश आतंकवाद से भी त्रस्त है और चीन की व्यापारिक नीति से भी। अमेरिका भी इसी तरह की समस्या से जुझ रहा है । अमेरिका समेत इन तमाम महाशक्तियों को इस बात का अंदाजा बखूबी है कि भारत को साथ लिए बिना इस लड़ाई को जीतना तो दूर की बात है , लड़ना भी संभव नहीं है।

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भारतीय मूल की कमला हैरिस का उपराष्ट्रपति बनना

उपराष्ट्रपति का चुनाव जीत कर कमला हैरिस ने इतिहास रच दिया है। वो अमेरिकी इतिहास में पहली महिला हैं जो उपराष्ट्रपति का पद संभालने जा रही है। यह भी पहली बार हो रहा है कि भारतीय मूल का कोई व्यक्ति अमेरिका के इतने बड़े पद पर बैठने जा रहा है । हालांकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को निर्धारित करते समय कोई भी व्यक्ति अपने देश के हितों का ही ज्यादा ध्यान रखता है और ऐसे में निश्चित तौर पर कमला हैरिस की पहली प्राथमिकता अमेरिकी हितों की रक्षा करना ही होगी लेकिन हाल के वर्षों में हमने देखा है कि अमेरिकी विदेश नीति का निर्धारण करते समय उपराष्ट्रपति भी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे में निश्चित तौर पर भारत-अमेरिकी संबंधों की भविष्य की इबारत लिखने में भारतीय मूल की कमला हैरिस भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी ही।

हालांकि अतंर्राष्ट्रीय कूटनीति और राजनीति में सबसे अधिक स्थापित मान्य सिद्धांत सिर्फ दो ही है- पहला , कोई भी देश स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता और दूसरा अपने देश का हित सर्वोपरि होता है और होना ही चाहिए। ऐसे में निश्चित तौर पर भारत-अमेरिका के आपसी संबंध लगातार पारस्परिक हितों की कसौटी पर कसे ही जाते रहेंगे और इसमें कुछ भी गलत नहीं है।