संसद का मानसून सत्र निर्धारित तिथि से दो दिन पहले 11 अगस्त को ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। वैसे तो सदन में विरोधी दलों का हंगामा अब आम बात हो गई है लेकिन बुधवार को संसद के दोनो सदनों में जो देखने को मिला , वो आमतौर पर कम ही देखने को मिलता है। बुधवार को लोकसभा में जहां लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला मानसून सत्र में कामकाज न हो पाने की वजह से दुखी होते नजर आए वहीं राज्यसभा में मंगलवार को हुए हंगामे की निंदा करते-करते सभापति और उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू भावुक होकर रोते नजर आए। आमतौर पर जब भी विपक्ष के हंगामे की वजह से सदन की कार्यवाही स्थगित होती है तो विरोधी दलों पर राजनीतिक निशाना साधने का कार्य सत्ताधारी दल करते रहे हैं लेकिन दोनों ही सदनों के सभापति द्वारा इस तरह से अपनी भावना व्यक्त करने का एक ही तात्पर्य माना जा सकता है कि अब पानी सर के ऊपर चला गया है।
यहां सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर सदन चलाना किसकी जिम्मेदारी है ? क्या शांतिपूर्ण तरीके से सदन चलाना केवल सरकार की जिम्मेदारी है ? क्या सदन में शांत माहौल में हर विधेयक, हर प्रस्ताव पर चर्चा करवाने का जिम्मा सिर्फ विपक्षी सांसदों का ही है ? क्या लोकसभा को चलाने की जिम्मेदारी अकेले लोकसभा स्पीकर की ही है ? क्या राज्यसभा में शांतिपूर्ण तरीके से कामकाज को सुनिश्चित करवाने का जिम्मा सिर्फ सभापति का ही है ? इन सभी सवाल का जवाब एक ही है – नहीं । लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब कुछ सही तरीके से संपन्न करवाने की जिम्मेदारी किसी एक व्यक्ति या एक ही पदासीन अधिकारी की हो ही नहीं सकती है। जिम्मेदारी को तय करने से पहले जरा मानसून सत्र की कार्यवाही पर नजर डालिए।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला की खरी-खरी
लोकसभा में कामकाज की रिपोर्ट देते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने बताया कि हंगामे और व्यवधान की वजह से कुल 96 घंटे में से लगभग 74 घंटे सदन में कोई कामकाज नहीं हो पाया। दूसरे शब्दों में कहे तो लोकसभा की 17 बैठकों के दौरान इस सत्र में कुल 96 घंटे कामकाज होना चाहिए था लेकिन हुआ सिर्फ 21 घंटे 14 मिनट। ओम बिरला ने सदन के जरिए देश को बताया कि लोकसभा में केवल 22 प्रतिशत ही कामकाज हो पाया। मानसून सत्र के दौरान लोकसभा में हंगामे के बीच ही 20 विधेयक पारित हुए, 66 तारांकित प्रश्नों के मौखिक उत्तर दिये गए। नियम 377 के अंतर्गत सांसदों ने कुल 331 मामले उठाए और विभिन्न विषयों पर केंद्र सरकार के 22 मंत्रियों ने सदन में अपनी बात रखी। केवल 22 प्रतिशत कामकाज होने से दुखी लोकसभा स्पीकर ने खरी-खरी बात कहते हुए यह भी कहा कि सदन की कार्यवाही चलाना सामूहिक जिम्मेदारी है। साथ ही उन्होने हंगामा करने को अपनी आदत बना लेने वाले सांसदों पर निशाना साधते हुए कहा कि आसन के समीप आकर सदस्यों का तख्तियां लहराना, नारे लगाना सदन की परंपराओं के अनुरूप नहीं है।
राज्यसभा में भावुक हुए सभापति एम. वेंकैया नायडू
11 अगस्त को उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू ने अपने कार्यकाल के 4 वर्ष पूरे कर लिए हैं । बुधवार का दिन उनके लिए जश्न मनाने का दिन होना चाहिए था लेकिन इसकी बजाय वेंकैया नायडू राज्यसभा में लगभग रोने वाले अंदाज में भावुक होते हुए दिखाई दिए। दरअसल वो मंगलवार को विरोधी दलों के कुछ सांसदों द्वारा किए गए बर्ताव से बेहद नाराज और आहत दिखाई दे रहे थे। उन्होने इन सासंदों के बर्ताव की निंदा करते हुए सदन के जरिए देश को बताया कि वो इस वजह से पूरी रात सो नहीं पाए हैं।
विपक्ष अलाप रहा है अलग ही राग
हाल ही में भाजपा संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सदन न चलने देने के विपक्षी सांसदों के रवैये पर सवाल खड़ा करते हुए विरोधी दलों पर निशाना साधा था। लेकिन इन आलोचनाओं और भावुक क्षणों के बीच विपक्ष अब भी अपना अलग ही राग अलाप रहा है। लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौघरी ने एक बार फिर से सरकार पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि सरकार का मकसद विपक्ष को छोटा दिखाना और सच को गुमराह करना है। उन्होने आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार भले ही उन पर आरोप लगाती रहे लेकिन सच यही है कि सरकार चर्चा कराने को ही तैयार नहीं थी। उन्होने कहा कि विपक्षी दलों की बार-बार मांग के बावजूद सरकार ने सदन में पेगासस जासूसी कांड पर चर्चा नहीं कराई।
सदन चलाना सबकी जिम्मेदारी
सदन में विपक्षी दलों का हंगामा कोई नई बात नहीं है। लगभग 74 वर्षों के संसदीय इतिहास में इस सदन ने कई बार हंगामा देखा है। इस देश ने यह भी देखा है कि हंगामे की वजह से सप्ताह और कई बार तो पूरे सत्र में ही कोई कामकाज नहीं हो पाया है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या अतीत की गलतियों की आड़ लेकर हम आखिर कब तक वर्तमान और भविष्य को खराब करते रहेंगे। जनता ने एक दल को बहुमत देकर सत्ता में बैठाया है तो वहीं कुछ अन्य दलों के नेताओं को सांसद बनाकर यह जिम्मेदारी भी दी है कि वो चर्चा के माध्यम से सरकार पर अंकुश लगाए रखे। सदन की कार्यवाहियों और चर्चाओं के माध्यम से ही सांसद अपने-अपने संसदीय क्षेत्र के लिए कई योजनाओं की सौगात केंद्र से ले पाते हैं तो फिर इससे भागना कैसा और क्यों ? यह सवाल जितना विपक्षी दलों के लिए जरूरी है उससे भी ज्यादा सत्ताधारी दल के सांसदों के लिए है क्योंकि लोकसभा चुनाव में तो सभी दलों के सांसदों को जनता से वोट मांगने जाना ही है। इसलिए सदन की कार्यवाही को सूचारू ढंग से चलाना सबकी जिम्मेदारी है। सरकार, विपक्ष ,सभापति सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। ये जिम्मेदारी सभी नेता जितनी जल्दी समझ पाएंगे , देश के लोकतंत्र के लिए उतना ही अच्छा रहेगा।
(लेखक– संतोष पाठक, वरिष्ठ टीवी पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं। ये पिछले 15 वर्षों से दिल्ली में राजनीतिक पत्रकारिता कर रहे हैं। )
]]>भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी , गृह मंत्री और पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह एवं वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के नेतृत्व में लगातार एक के बाद एक राज्यों में विजय हासिल करती जा रही है या फिर अपना जनाधार बढ़ाती जा रही है। 2017 में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पार्टी का 14 वर्षों का वनवास खत्म करने की बात हो या फिर हाल ही में हुए पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में नंबर 2 पार्टी बनने की बात , भाजपा हर जगह कामयाबी की नई कहानी लिखती जा रही है।
लेकिन जिस दिल्ली में प्रधानमंत्री के तौर पर भाजपा के सबसे लोकप्रिय नेता नरेन्द्र मोदी रहते हैं, उस दिल्ली की विधानसभा में भाजपा 1998 से लगातार विपक्ष में ही बैठ रही है। पहले शीला दीक्षित भाजपा को हराया करती थी और 2013 के बाद से अरविंद केजरीवाल भाजपा को जीतने नहीं दे रहे हैं। दिल्ली में जीत हासिल करने के लिए भाजपा लगातार अपने चेहरे को भी बदलती रही है लेकिन हालात में कोई बदलाव नहीं आ रहा है।
गौतम गंभीर को बनाया जाएगा दिल्ली भाजपा का नया प्रदेश अध्यक्ष !
एक जमाने में फिल्मी दुनिया से राजनीति में आए अपने सांसद मनोज तिवारी पर बड़ा दांव लगाते हुए भाजपा के आला नेताओं ने उन्हे अरविंद केजरीवाल के सामने खड़ा करने की कोशिश की थी लेकिन तिवारी नाकाम रहे। अब भाजपा इंडिया को वर्ल्ड कप जिताने वाले पूर्व अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर और दिल्ली से वर्तमान सांसद गौतम गंभीर पर बड़ा दांव लगाने जा रही है। दरअसल, भाजपा हर कीमत पर दिल्ली के सभी नगर निगमों में अपनी सत्ता बचाए रखना चाहती है , जहां वो लगातार जीत हासिल कर रही है। भाजपा आलाकमान को यह समझ आ गया है कि अगले साल होने जा रहे नगर निगम के चुनाव में भाजपा का मुकाबला थकी-हारी कांग्रेस से नहीं बल्कि जोश से भरी आम आदमी पार्टी से ही होने जा रहा है। ऐसे में जीत हासिल करने के लिए अरविंद केजरीवाल के सामने कोई लोकप्रिय चेहरा ही देना होगा।
सूत्रों के मुताबिक, भाजपा आलाकमान ने दिल्ली में गौतम गंभीर को बड़ी जिम्मेदारी देने का मन बना लिया है और जल्द ही इसका ऐलान हो सकता है। अगस्त महीने की शुरूआत में ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने गौतम गंभीर से मुलाकात की थी। इसके अगले दिन गंभीर ने भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष से भी मुलाकात की। कुछ ही दिनों बाद गृह मंत्री अमित शाह ने जेपी नड्डा और गौतम गंभीर दोनों से एकसाथ मुलाकात की। सोमवार , 9 अगस्त को भी गौतम गंभीर ने पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष से एक बार फिर मुलाकत की। इन मुलाकातों के बाद से ही दिल्ली भाजपा में बड़े बदलाव और गौतम गंभीर को बड़ी जिम्मेदारी मिलने के कयास लगाए जा रहे हैं।
भाजपा सूत्रों की माने तो दिल्ली में होने जा रहे नगर निगम चुनाव से पहले पार्टी प्रदेश अध्यक्ष में बदलाव कर सकती है। आपको बता दें कि वर्तमान में आदेश गुप्ता भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष हैं। विधानसभा चुनाव में मिली हार की जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी द्वारा इस्तीफे की पेशकश करने के बाद आदेश गुप्ता को दिल्ली भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। ।
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अब तक लोक जनशक्ति पार्टी के चेहरे के रूप में जाने जाने वाले चिराग पासवान अपने राजनीतिक जीवन के अब तक के सबसे बड़े संकट के दौर में फंसे हुए हैं। जिस पार्टी की स्थापना उनके पिता रामविलास पासवान ने की थी , आज उसी पार्टी से उन्हे बेदखल करने की कोशिश की जा रही है। रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस ने पार्टी के अन्य 4 सांसदों को अपने साथ मिलाकर पहले चिराग को लोकसभा में संसदीय दल के नेता पद से हटाया और बाद में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से भी हटा दिया।
यह बात बिल्कुल सही है कि पार्टी का एकमात्र चेहरा लंबे समय तक सिर्फ और सिर्फ रामविलास पासवान ही रहे हैं । रामविलास के जीवित और सक्रिय रहने के दौरान पार्टी के अन्य नेताओं की बात तो छोड़िए खुद उनके दोनो भाई रामचन्द्र पासवान और यही पशुपति पारस उनके सामने बोलने की हिम्मत तक नहीं कर पाते थे । लेकिन यह डर से ज्यादा दोनों भाईयों का समर्पण था । दोनों भाई यह बखूबी जानते थे कि रामविलास की राजनीति की वजह से ही वो चुनाव जीतते रहे हैं और उन्ही की वजह से सत्ता में भागीदारी भी मिलती रही है। रामविलास पासवान की वजह से ही उनके छोटे भाई स्वर्गीय रामचन्द्र पासवान लगातार सासंद बनते रहे तो वहीं उनके दूसरे छोटे भाई पशुपति पारस बिहार की कई सरकारों में मंत्री पद का आनंद लेते रहे हैं।
अपने परिवार के प्रति रामविलास पासवान का समर्पण किसी से छुपा नहीं रहा है। इसलिए हमेशा से ही लोक जनशक्ति पार्टी को पासवान परिवार की ही पार्टी माना जाता रहा है। परिवार के प्रति रामविलास पासवान का यह प्रेम 2019 के लोकसभा चुनाव में भी नजर आया। 2019 के लोकसभा चुनाव में लोजपा ने जिन छह सीटों पर चुनाव लड़ा उनमें से तीन सीटों पर पासवान के परिवार के सदस्यों ( बेटा चिराग पासवान और दो भाई पशुपति पारस और रामचंद्र पासवान ) ने ही चुनाव लड़ा था। तीनों ही लोकसभा का चुनाव जीते। आगे चलकर भाजपा के साथ हुए समझौते के मुताबिक रामविलास पासवान राज्यसभा सदस्य बनें और इस तरह संसद में सबसे बड़ा कोई परिवार था तो वह रामविलास पासवान का ही परिवार था।
सत्ता के प्रति इस परिवार की दिवानगी का आलम इतना ज्यादा हो गया है कि जैसे ही रामविलास पासवान के भाईयों और परिवार के अन्य सदस्यों को यह लगा कि चिराग पासवान उन्हे सत्ता नहीं दिलवा सकते तो उन्होने अंदर ही अंदर रणनीति बनानी शुरू कर दी। अभी रामविलास पासवान को मरे हुए एक साल भी नहीं हुए हैं , अभी तक उनकी पहली बरसी भी नहीं आई है लेकिन उन्ही के छोटे भाई ने उनके आदेशों को धत्ता बताते हुए उनके द्वारा घोषित उत्तराधिकारी चिराग पासवान को राजनीतिक रूप से खत्म करने के अभियान को अंजाम दे दिया।
रामविलास पासवान से प्रेरणा लें चिराग
रामविलास पासवान भले ही पार्टी का चेहरा रहे हो लेकिन यह बात भी बिल्कुल सही है कि पार्टी संगठन के मामले में उन्होने हमेशा अपने भाई पशुपति पारस पर पूरा भरोसा किया। पासवान ने स्वयं कई बार बिहार से बाहर निकलकर उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर भी लड़ने का प्रयास किया लेकिन वो कभी भी कांशीराम-मायावती की तरह अपने आपको दलितों का राष्ट्रीय नेता नहीं बनाए। उन्होने देश के कई राज्यों में पार्टी संगठन का गठन किया लेकिन पार्टी को हमेशा ही ताकत बिहार से ही मिली और बिहार संगठन को बनाने में पशुपति पारस ही हमेशा निर्णायक भूमिका में रहे। इसलिए आज पार्टी के सारे सांसद ( जो बिहार से ही है ) पशुपति पारस के साथ हैं। पार्टी के पटना कार्यालय पर पशुपति गुट का कब्जा है।
इस हालत में चिराग के लिए यह जरूरी है कि वो अपने पिता के संघर्ष के दौर को याद करें। अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी पासवान ने किसी पार्टी या विचारधारा से ज्यादा प्रेम नहीं किया। पासवान ने अपने जीवन का पहला चुनाव 1969 में अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट ( बिहार की अलौली विधानसभा ) से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में जीता। पासवान ने रिकॉर्ड बनाने वाला अपना लोकसभा चुनाव 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर जीता । इसके बाद पासवान लोकदल, जनता दल , जनता दल यूनाइडेट के टिकट पर चुनाव जीतते रहे। सन् 2000 में नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइडेट से नाता तोड़ कर लोक जनशक्ति पार्टी के नाम से अपनी पार्टी का गठन किया। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बने। गोधरा कांड के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र की भाजपा सरकार पर निशाना साधते हुए पासवान ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए का दामन थाम लिया। राजनीतिक माहौल बदला तो 2014 में उन्होने इन्ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए एनडीए का दामन थाम लिया। बिहार में वो कभी नीतीश कुमार के साथ रहे तो कभी लालू यादव के साथ । केंद्र में वो कभी यूपीए के साथ रहे तो कभी एनडीए के साथ ।
रामविलास पासवान देश के इकलौते राजनेता रहे हैं, जिन्होंने देश के छह प्रधानमंत्रियों की सरकारों में मंत्री का पद संभाला। विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर, एच डी देवगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री पद संभालने वाले रामविलास पासवान को यूं ही राजनीति का मौसम वैज्ञानिक नहीं कहा जाता था।
चिराग के राजनीतिक कौशल की परीक्षा का समय
जाहिर सी बात है कि अब चिराग पासवान को अपने पिता रामविलास पासवान की तरह का राजनीतिक कौशल दिखाना होगा। अपने चाचा और चचेरे भाई समेत बगावत करने वाले पांचो सांसदों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाकर और लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को लेटर लिखकर चिराग ने इसकी शुरूआत तो कर ही दी है लेकिन चाचा के साथ शुरू हुई यह लड़ाई जीतने के लिए चिराग को एक ताकतवर साथी की जरूरत पड़ेगी। अगर भाजपा आलाकमान उनका साथ देता है तो उनका पलड़ा बिहार से लेकर दिल्ली तक भारी रहेगा ( हालांकि इसकी उम्मीद अभी कम ही है। ) दूसरा रास्ता यह है कि बिहार में चाचा को पटखनी देने के लिए राजद का साथ लिया जाए। वैसे भी जेल से बाहर आने के बाद लालू यादव आजकल दिल्ली में ही है और राजद ने उनका साथ देने का ऐलान कर ही दिया है। लेकिन इन दोनों से अलग हटकर चिराग के पास एक तीसरा रास्ता भी है और वो है संघर्ष का। पार्टी के नाम, चुनाव चिन्ह , पार्टी कार्यालय और पार्टी के संसाधनों पर कब्जा करने की कोशिश करे और अगर इस लड़ाई में वो जमीन के साथ-साथ अदालत में भी हार जाते हैं तो लोजपा ( रामविलास ) का गठन कर अकेले ही बिहार के चुनावी मैदान में उतर जाए । बिहार की जनता के आशीर्वाद से अपने आपको रामविलास पासवान का असली उत्तराधिकारी साबित करें । 2024 के लोकसभा और 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारी जोर-शोर से करे और तब तक बिहार को ही अपना स्थायी घर बना ले।
(लेखक– संतोष पाठक, वरिष्ठ टीवी पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं। ये पिछले 15 वर्षों से दिल्ली में राजनीतिक पत्रकारिता कर रहे हैं। )
]]>भारत के साथ सदियों पुराने ऐतिहासिक पारस्परिक सहयोग और रोटी-बेटी का संबंध रखने वाले नेपाल में हाल के दिनों में एक और आंदोलन जोर पकड़ रहा है। नेपाल का इस बार का आंदोलन दुनिया भर के देशों को चौंका रहा है । खासकर उन देशों को जहां की सरकार और जनता लोकतंत्र के लिए पूरी तरह से समर्पित है। 12 वीं शताब्दी के इंग्लैंड से लेकर आधुनिक विश्व के हर देश में जितने भी आंदोलन हुए हैं , उनमें से ज्यादातर आंदोलन की लगभग एक ही मांग रही है कि उस देश विशेष में स्थापित सरकार के तौर-तरीकों को बदल कर वहां लोकतांत्रिक शासन की स्थापना की जाए।
नेपाल में भी माओवादी ताकतों ने बंदूक के बल पर तो राजनीतिक दलों ने अहिंसा और जन आंदोलन के बल पर राजशाही से दशकों तक सिर्फ इसलिए संघर्ष किया कि वहां सही मायनों में लोकतंत्र की स्थापना हो लेकिन अब वहां की जनता सिर्फ 12 वर्षों में ही लोकतंत्र से उब गई है। केवल 12 वर्षों के लोकतांत्रिक शासन में ही वहां की जनता राजनीतिक दलों और सत्ता में बैठे नेताओं के ड्रामे से इतना त्रस्त हो गई है कि अब वहां राजशाही की वापसी के लिए आंदोलन हो रहे है। 12 वर्षों के लोकतांत्रिक ढ़ांचे में जो कुछ हुआ या जो कुछ हो रहा है , उससे त्रस्त नेपाली जनता अब 250 साल पुराने राजतंत्र की वापसी के लिए आंदोलन कर रही है। निश्चित तौर पर नेपाली सत्ता में बैठे लोग या सत्ता का सुख भोग रहे नेता इसे एक षडयंत्र करार देंगे और बड़ी-बड़ी बात करेंगे लेकिन इससे सबसे ज्यादा निराश वो लोग होंगे जिन्होने सही मायनो में नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष किया था। जिन लोगों ने नेपाली जनता की भलाई का सपना देखा था। जिन लोगों को यह लगता था कि जनता के द्वारा चुनी गई सरकार जनता की सरकार होगी और जनता के लिए कार्य करेगी। नेपाल की सत्ता में पिछले 12 वर्षों से बैठे लोगों ने ऐसे लोगों को घोर निराश किया है।
नेपाल में जारी है राजनीतिक उठापटक का खेल
नेपाल में वर्तमान में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में है और प्रधानमंत्री के पद पर केपी शर्मा ओली बैठे हुए है। केपी शर्मा ओली भले ही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नेता के तौर सत्ता में बैठे हो लेकिन उनकी अपनी पार्टी में ही उनके कामकाज के तौर-तरीकों को लेकर काफी विवाद हो रहा है। नेपाल में माओवादी आंदोलन का चेहरा रहे और पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड जो वर्तमान में पार्टी के को-चेयरपर्सन भी है, लगातार ओली के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। लेकिन ओली येन-केन-प्रकरेण अपनी सत्ता को बचाने के लिए हरसंभव उपाय करने में लगे हुए हैं। कभी वो अपनी ही पार्टी के बैठकों से भागने की कोशिश करते नजर आते हैं तो कभी नए-नए नियम और कायदे कानून के जरिए पार्टी को नए तरह से हांकने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो फिर वो राष्ट्रपति भवन का सहारा लेकर देश पर अध्यादेश के जरिए नए कानून थोपने की कोशिश करते दिखते हैं लेकिन हर बार उन्हे मुंह की खानी पड़ती है।
नेपाल में लोकतंत्र लाने के लिए कई दशकों तक चला था आंदोलन
नेपाल के सत्ता प्रतिष्ठान में जारी ड्रामे से त्रस्त नेपाली जनता अब सड़कों पर उतर कर लोकतंत्र को खत्म करके दुनिया की आखिरी हिंदू राजशाही को वापस लाने की मांग कर रही है और यह सारा बदलाव महज 12 साल में ही हो गया है। दरअसल , नेपाल दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है जो कभी भी किसी का गुलाम नहीं रहा। हालांकि नेपाल की वर्तमान सीमा का निर्धारण उनके और ब्रिटेन के बीच 1814 से 1816 तक चली लड़ाई के बाद हुई संधि से ही हुआ है। वहां हमेशा से राजा का शासन था लेकिन उस दौर में वहां राणाओं ने नेपाल को बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग-थलग रखा। भारत की आजादी के साथ नेपाल में भी लोकतांत्रिक शासन की स्थापना की मांग को लेकर आंदोलन शुरु हो गए। नेपाली कांग्रेस पार्टी के देशभर में चलाए गए आंदोलन और भारत की मदद से 1951 में वहां राणाओं की सत्ता समाप्त हुई और वास्तविक सत्ता राजाओं के हाथ में आ गई और इसके बाद लोकतंत्र के लिए आंदोलन लगातार जोर पकड़ता गया। 1959 में नेपाल ने अपना लोकतांत्रिक संविधान बनाया। संसदीय चुनाव हुए जिसमें नेपाली कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया लेकिन इसके अगले ही साल राजा महेंद्र ने सरकार पर भ्रष्टाचार और अकुशलता का आरोप लगाकर संसद को भंग कर दिया। इसके बाद 1962 में नेपाल के राजा ने बुनियादी लोकतंत्र के नाम पर किसी भी पार्टी के सहयोग के बिना ही राष्ट्र पंचायत का गठन किया। यहां तक कि मंत्रिमंडल का गठन भी राजा ने स्वयं ही किया। राजा महेन्द्र की मृत्यु के बाद 1972 में राजा बीरेन्द्र ने नेपाल की राजगद्दी संभाली । इसके कुछ सालों बाद 1980 में संवैधानिक सुधार की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन हुआ। नेपाल के राजा ने कुछ बातें तो मानी लेकिन उनकी अजीब सी शर्तों के कारण नेपाली कांग्रेस ने 1985 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया। नेपाली कांग्रेस ने 1986 के चुनावों का बहिष्कार भी किया। आंदोलन जोर पकड़ता गया। 1990 तक सड़कों पर प्रदर्शनों, सभाओं, हड़तालों के दबाव में आखिरकार राजा बीरेंद्र ने पंचायत पद्धति खत्म कर राजनीतिक पार्टियों को वैधता देने वाले नए संविधान पर अपनी मंजूरी दे दी। नए संविधान के तहत 1991 में नेपाल में चुनाव हुए। इस चुनाव में नेपाली कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला और गिरिजा प्रसाद कोइराला देश के प्रधानमंत्री बने। उस समय यह किसे पता था कि कुछ ही वर्षों में नेपाल राजनीतिक अस्थिरता के भयावह दौर में फंसने जा रहा है। तीन साल बाद 1994 में कोइराला सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया। दोबारा चुनाव करवाए गए और नेपाल में पहली बार कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ लेकिन अगले ही साल इस सरकार को भंग कर दिया गया। उसी समय नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ने राजशाही के खात्मे के लिए देशभर खासकर नेपाल के ग्रामीण इलाकों में विद्रोह शुरू कर दिया। एक तरफ देश में विद्रोह की चिंगारी भड़क रही थी तो दूसरी तरफ नेपाल के राजनीतिक दल प्रधानमंत्री पद को लेकर म्यूजिकल चेयर का खेल खेलने में व्यस्त थे। 1999 में हुए चुनाव में नेपाली कांग्रेस फिर से सत्ता में आई और कृष्ण प्रसाद भट्टराई प्रधानमंत्री बने। लेकिन अगले ही साल पार्टी में विद्रोह के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा और गिरिजा प्रसाद कोइराला चौथी बार प्रधानमंत्री बने। उठा-पटक के इसी दौर में नेपाल के राजपरिवार को भयानक त्रास्दी से गुजरना पड़ा। जून 2001 में राजकुमार दीपेंद्र ने राजा बीरेन्द्र और रानी ऐश्वर्या समेत राजपरिवार के कई सदस्यों की गोली मारकर हत्या कर दी। राजा बीरेंद्र की हत्या के बाद उनके भाई राजकुमार ज्ञानेंद्र राजा बने। ज्ञानेंद्र स्वभाव से ही लोकतंत्र विरोधी थे इसलिए उनके राज में माओवादी विद्रोह की घटनाएं जोर पकड़ने लगी। माओवादियों ने नेपाल के कई हिस्से पर अपना कब्जा जमा लिया। पहले कोईराला और बाद में देउबा ने माओवादियों के साथ समझौता करने की कोशिश की लेकिन तमाम कोशिशें नाकाम रही। परेशान राजा ज्ञानेंद्र ने नेपाल में आपातकाल लगा दिया। एक तरफ माओवादियों की ताकत लगातार बढ़ती जा रही थी तो दूसरी तरफ राजा ज्ञानेंद्र लगातार नए प्रधानमंत्री बनाने और उन्हे हटाने के खेल में लगे थे। इस दौर में एक के बाद एक देउबा, लोकेंद्र बहादुर चंद्र, सूर्य बहादुर थापा , उसके बाद फिर से शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री बनाए गए। फरवरी 2005 में राजा ज्ञानेंद्र ने देउबा को बर्खास्त कर सारी कार्यकारी शक्तियां अपने हाथों में ले लीं। लेकिन इसके महज तीन साल बाद 2008 में उनके हाथ से सब कुछ चला गया। मई 2008 में 240 वर्षों से चली आ रही हिंदू राजशाही को खत्म करने की घोषणा कर दी गई। राजा ज्ञानेंद्र को सत्ता से बाहर कर दिया गया। नेपाल में नई सरकार सत्ता में आई । नेपाल को हिन्दू राष्ट्र की बजाय धर्मनिरपेक्ष देश घोषित कर दिया गया। 2008 में जिस नेपाल में वास्तविक लोकतंत्र आया था , अब 2020 में उसी नेपाल में फिर से लोकतंत्र को खत्म कर राजा को वापस लाने की मांग जोर पकड़ने लगी है।
लोकतंत्र से क्यों हताश और निराश हो गई नेपाली जनता ?
वर्तमान माहौल में देखा जाए तो इसकी सिर्फ एक और एक ही वजह निकल कर सामने आ रही है कि वहां की तमाम राजनीतिक पार्टियों ने नेपाली जनता को हताश और निराश कर दिया है। पिछले 12 वर्षों में नेपाल में हालात सुधरने की बजाय और ज्यादा बिगड़ हए हैं।
यह बात भी सही है कि नेपाल की अधिकांश जनता अभी भी राजशाही को पसंद नहीं करती है। लेकिन उतनी ही सही यह बात भी है कि राजशाही की तमाम बुराईयां अभी भी शासन व्यवस्था में बनी हुई है। नेपाल में गरीबी और बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। नेपाल अभी भी दुनिया के भ्रष्ट देशों की लिस्ट में शामिल है। करप्ट नेता और अधिकारियों के खिलाफ कोई प्रभावी सख्त एक्शन लेने में वहां की सरकार अक्षम है।
सबसे बड़ी बात , वहां की सरकारों के देश विरोधी रवैये की है। नेपाल और भारत के संबंध जग-जाहिर है। आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के दौर में तो नेपाल के राजा अपने देश के भारत में विलय तक को तैयार थे। लेकिन उस समय भारत ने ऐसा करने से मना कर दिया। भारत यह चाहता था कि एक स्वतंत्र देश के तौर पर नेपाल का अस्तित्व बना रहे। भारत-चीन के बीच एक बफर स्टेट के तौर नेपाल की भूमिका काफी अहम मानी जाती रही है। लेकिन 2008 के बाद सत्ता में आने वाली ज्यादातर सरकारों ने भारत विरोध के नाम पर नेपाल के राष्ट्रीय हितों तक से समझौता कर लिया। भारत-नेपाल की सीमा खुली है। दोनों देशों के बीच आवागमण के लिए किसी पासपोर्ट या वीजा की जरूरत नहीं है। नेपाली नागरिक भारतीय की तरह ही भारत में शिक्षा ले सकते हैं, नौकरी कर सकते हैं। दोनो देशों के बीच रोटी-बेटी का संबंध माना जाता है। भगवान राम की अयोध्या भारत में है तो सीता मैया का मायका जनकपुर नेपाल में। सीतामढ़ी, मधुबनी जैसे बिहार के कई जिलों के हजारों गांवों के परिवारों ने अपनी बेटी या बेटे की शादी नेपाल में कर रखी है। नेपाल की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में भारत का अहम योगदान रहा है। नेपाल का शायद ही कोई ऐसा इलाका या फील्ड बचा होगा , जहां भारतीय मदद नहीं जा रही हो लेकिन इसके बावजूद नेपाली सत्ता में बैठे लोगों ने भारत विरोध की अंधी पट्टी अपनी आंखों पर बांध रखी है। चीन के डर या मोह में वहां की सरकारों , खासकर वर्तमान प्रधानमंत्री ओली ने भारत विरोध के नाम पर नेपाल की संप्रभुता को चीन के आगे गिरवी रख दिया है। इन हालातों में नेपाल की देशभक्त जनता को यह लगने लगा है कि लोकतंत्र के नाम पर राज करने वाले इन नेताओं को अगर जल्द से जल्द सत्ता से बाहर नहीं किया गया तो नेपाल का भौगोलिक नक्शा बदलने में देर नहीं लगेगी। डर इस बात का भी है कि जो नेपाल अपने राजनीतिक इतिहास में कभी किसी का गुलाम नहीं बना वो कहीं चीन का एक उपनिवेश मात्र बन कर न रह जाए इसलिए वहां की जनता सड़कों पर उतर रही है। इसलिए नेपाली लोग राजशाही को वापस लाने की मांग कर रहे हैं । वहां की जनता यह अच्छी तरह से जानती है कि एक तरफ भारत है जिसने हमेशा नेपाल की संप्रभुता और नेपाली जनता का मान रखा है। जिस भारत ने नेपाल के राजा के कहने के बावजूद नेपाल का भारत में विलय नहीं किया वो भारत कभी भी नेपाल को नुकसान नहीं पहुंचा सकता। तो दूसरी तरफ चीन है , जिसकी विस्तारवादी नीतियों से पूरी दुनिया वाकिफ है। हैरानी की बात तो यह है कि जो बात नेपाली जनता की समझ में आ गई है वो बात वहां सत्ता में बैठे लोगों को क्यों समझ नहीं आ रही है। नेपाल के साथ-साथ यह पूरे महाद्वीप के लिए बेहतर होगा कि नेपाल में राज कर रहे लोग जल्द से जल्द नेपाली जनता की भावना को समझ कर , उनके अनुरूप काम करें ।
( लेखक– संतोष पाठक, वरिष्ठ टीवी पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं। ये पिछले 15 वर्षों से दिल्ली में राजनीतिक पत्रकारिता कर रहे हैं। )
]]>देश में शायद ही कभी किसी नगर निकाय का चुनाव इतना अधिक चर्चा में रहा है जितनी चर्चा ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव की हुई है। केन्द्र की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी ने जिस अंदाज में इस चुनाव को लड़ा है, जिस आक्रामकता के साथ चुनाव प्रचार किया, जिस पैमाने पर भारत सरकार के मंत्रियों को उतारा, चुनाव प्रभारी की विशेष नियुक्ति की। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा यहां तक कि पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जितना समय हैदराबाद को दिया, उसने इस चुनाव को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना दिया।
भाजपा की रणनीति और असदुद्दीन ओवैसी का हमला
भाजपा नेताओं की इतनी बड़ी फौज ने निश्चित तौर पर हैदराबाद शहर पर राज कर रहे राजनीतिक दलों की नींद उड़ा दी। वैसे तो ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी.आर की पार्टी का कब्जा है लेकिन देश-दुनिया में हैदराबाद की पहचान असदुद्दीन ओवैसी के शहर के तौर पर ज्यादा है। इसकी एक वजह शायद यह भी हो सकती है कि असदुद्दीन ओवैसी हाल के दिनों में मुस्लिम राजनीति के एक बड़े प्रतीक के तौर पर उभरे हैं। हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटों पर मिली जीत से भी यही साबित होता दिख रहा है कि धीरे-धीरे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों की पार्टी के रुप में उभरती जा रही है और अब इसका अगला निशाना दीदी का गढ़ पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव है। इसलिए भाजपा नेताओं ने हैदराबाद नगर निगम पर काबिज टीआरएस से ज्यादा तीखा हमला लगातार असदुद्दीन ओवैसी पर ही बोला। भाजपा नेताओं के हमले के जवाब में असदुद्दीन ओवैसी ने भी तीखा राजनीतिक हमला बोला। ओवैसी की पार्टी के स्थानीय नेताओं ने तो किसान आंदोलन के बावजूद गृह मंत्री अमित शाह के चुनावी दौरे पर निशाना साधा तो वहीं असदुद्दीन ओवैसी ने यह कह कर निशाना साधा कि यह चुनाव हैदराबाद निकाय का न होकर प्रधानमंत्री का हो गया है। ओवैसी ने कहा कि यह हैदराबाद चुनाव जैसा नहीं है, ऐसा लगता है जैसे हम नरेंद्र मोदी की जगह पीएम का चुनाव कर रहे हैं। भाजपा नेताओं की भीड़ पर कटाक्ष करते हुए ओवैसी ने कहा कि अब केवल ट्रंप को ही बुलाना बचा रह गया है।
चुनाव का एजेंडा सेट करने में कामयाब हुई भाजपा
भाजपा की लगातार जीत की सबसे बड़ी वजह यही मानी जाती है कि वो हर चुनाव का एजेंडा अपने हिसाब से तय करने में कामयाब हो जाती है और विरोधी दलों को उसके पिच पर आकर ही खेलना पड़ता है। हैदराबाद में भी भाजपा को अपनी रणनीति में कई बार कामयाबी मिलती नजर आई । विरोधियों ने कहा कि गली-मुहल्ले के चुनाव में भाजपा के दिग्गज नेता आ रहे हैं तो तुरंत पलटवार करते हुए अमित शाह ने कहा कि कोई चुनाव छोटा या बड़ा नहीं होता और ऐसा कह कर ओवैसी की पार्टी हैदराबाद की जनता का अपमान कर रही है।
इसी मुद्दें पर तीखा राजनीतिक हमला बोलते हुए भाजपा क राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने भी हैदराबाद की जनता के स्वाभिमान को छूने की कोशिश की । नड्डा ने कहा कि उनके यहां आने के पहले कहा गया कि गली के चुनाव के लिए एक राष्ट्रीय अध्यक्ष आ रहा है। क्या हैदराबाद गली है? 74 लाख वोटर, 5 लोकसभा सीट, 24 विधानसभा और करोड़ से अधिक जनसंख्या, और ये इन्हें गली दिखती है।
हैदराबाद – निजाम और सरदार पटेल का इतिहास
हैदराबाद सिर्फ एक शहर ही नहीं है। हैदराबाद प्रतीक है भाजपा की राष्ट्रवादी भावना का क्योंकि इस शहर का इतिहास भारत की आजादी के कालखंड के शिखर पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल से जुड़ा हुआ है। सरदार पटेल , जिन्हे पिछले कुछ वर्षों से लगातार भाजपा जवाहरलाल नेहरू की तुलना में एक बड़े राष्ट्रवादी और कठोर प्रशासक के तौर पर उभारने की कोशिश कर रही है। दुनिया जानती है कि 1947 में पाकिस्तान की शह पर हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय से इंकार कर दिया था जबकि वहां की बहुसंख्य आबादी हिंदुओं की थी। उस समय अपनी रणनीतिक कौशल और सैन्य बल का प्रयोग करते हुए सरदार पटेल ने निजाम को भागने पर मजबूर कर दिया था । भारतीय सेना के उसी अभियान के बाद हैदराबाद का विलय भारत में हो पाया और इसलिए हैदराबाद , भाजपा के लिए सिर्फ एक शहर ही नहीं है।
सिर्फ चुनाव नहीं भाजपा का सपना है हैदराबाद
1980 में गठन के बाद से ही भाजपा को मुख्यत: उत्तर भारत की ही पार्टी माना जाता रहा है। लेकिन उसी समय से लगातार भाजपा दक्षिण भारत में पांव जमाने की कोशिश कर रही है। सबसे पहले उसे कर्नाटक में कामयाबी मिली जहां वो आज भी सत्ता में है लेकिन केरल और अविभाजित आंध्र प्रदेश ( तेलंगाना और आंध्र प्रदेश ) में भाजपा को अभी तक बहुत बड़ी कामयाबी नहीं मिल पाई है। इन राज्यों को जीतने के मकसद से ही अटल-आडवाणी के युग में आंध्र प्रदेश के बंगारू लक्ष्मण और वेंकैया नायडू एवं तमिलनाडु के जन कृष्णमूर्ति को भारत सरकार में मंत्री बनाया गया, भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। वर्तमान मोदी सरकार में भी हैदराबाद के जी किशन रेड्डी गृह राज्य मंत्री के तौर पर सीधे अमित शाह के निर्देशन में काम कर रहे हैं।
आज की बात करें तो भाजपा , दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। संसद के दोनों सदनों- लोकसभा और राज्यसभा में भाजपा नंबर वन पार्टी है। देश के अधिकांश राज्यों में भी भाजपा की सरकारें हैं। लेकिन तेलंगाना, आंध्र प्रदेश , केरल जैसे राज्य अभी भी भाजपा के लिए एक सपना ही बने हुए हैं। हरियाणा ने भाजपा को यह सबक सिखाया है कि स्थानीय निकायों में मिली कामयाबी का बड़ा असर विधानसभा और लोकसभा चुनाव पर भी पड़ता है इसलिए पार्टी हैदराबाद में पूरी ताकत लगा रही है क्योंकि इस स्तर पर मिली कामयाबी का मनोवैज्ञानिक लाभ भाजपा को 2023 के तेलंगाना विधानसभा चुनाव में भी मिल सकता है और ओवैसी की पार्टी को हराने का लाभ भाजपा को देशभर में मिल सकता है।
आपको बता दें कि ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम में राज्य के 4 जिलें- हैदराबाद, रंगारेड्डी, मेडचल-मलकजगिरी और संगारेड्डी आते हैं। इस पूरे इलाके में 24 विधानसभा क्षेत्र और 5 लोकससभा की सीटें आती हैं। तेलंगाना की जीडीपी का बड़ा हिस्सा यहीं से आता है और इस नगर निगम का सालाना बजट लगभग साढ़े पांच हजार करोड़ का है। हैदराबाद नगर निगम में कुल 150 सीटें हैं। पिछले चुनाव में सबसे ज्यादा दो तिहाई सीट 99 तेलंगाना राष्ट्र समिति को मिली थी। असदुद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम ने 44 सीटों पर जीत दर्ज की थी जबकि भाजपा को महज चार सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। वर्तमान की बात करें तो तेलंगाना में कुल 119 विधायकों में से भाजपा के पास केवल 2 ही विधायक हैं हालांकि लोकसभा चुनाव में भाजपा को इस राज्य की कुल 17 लोकसभा सीटों में से 4 पर जीत हासिल हुई थी।
]]>अहमद पटेल 1 अक्टूबर को कोरोना संक्रमित हुए थे। उन्हें 15 अक्टूबर को गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में भर्ती कराया गया था। बुधवार को उनके बेटे फैज़ल ने ट्वीट करके अपने पिता के निधन की दुःखद जानकारी को सार्वजनिक किया।
अहमद पटेल के निधन की जानकारी देते हुए उनके बेटे ने ट्वीट किया,
” बड़े दुख के साथ मैं यह बताना चाहता हूं कि मेरे पिता अहमद पटेल का बुधवार देर रात 3.30 बजे निधन हो गया है। करीब एक महीने पहले उनकी रिपोर्ट कोरोना पॉजिटिव आई थी और उनके शरीर के कई अंग काम करना बंद कर चुके थे, जिसके बाद उनकी मौत हो गई। अल्लाह उन्हें जन्नत फरमाए। ”
फैजल ने अपने सभी शुभचिंतकों से कोरोना गाइडलाइन का पालन करने की अपील की और साथ ही सबसे सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखने को भी कहा ।
सोनिया-राहुल गांधी ने जताया शोक
अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी के निधन पर शोक संदेश जारी करते हुए कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा,” मैंने ऐसा सहयोगी खो दिया, जिसने अपनी पूरी जिंदगी कांग्रेस को समर्पित कर दी थी। उनकी विश्वसनीयता, काम के प्रति समर्पण, दूसरों की मदद करने जैसे गुण उन्हें दूसरों से अलग बनाते थे। उनकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। उनके परिवार के साथ मेरी संवेदनाएं हैं। ”
राहुल गांधी ने पटेल के निधन पर शोक जताते हुए ट्वीट किया, “आज दुखद दिन है। अहमद पटेल कांग्रेस पार्टी के स्तंभ थे। वे हमेशा पार्टी के लिए जिए और कठिन वक्त में हमेशा पार्टी के साथ खड़े रहे। हमेशा उनकी कमी खलेगी।”
पीएम नरेंद्र मोदी ने जताया दुख
अहमद पटेल के निधन पर दुःख जाहिर करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, ” अहमद पटेल जी के निधन से दुखी हूं। उन्होंने कई साल सार्वजनिक जीवन में समाज के लिए काम किया। उन्हें अपने तेज दिमाग के लिए जाना जाता था। कांग्रेस को मजबूत करने के लिए वे हमेशा याद किए जाएंगे। मैंने उनके बेटे फैजल से बात की है। उनकी आत्मा को शांति मिले। ”
भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह समेत भारत सरकार के कई मंत्रियों, भाजपा के कई दिग्गज नेताओं और मुख्यमंत्रियों ने भी पटेल के निधन पर शोक जताते हुए ट्वीट किया।
अहमद पटेल के राजनीतिक कद का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि वो देश की संसद में 8 बार गुजरात के प्रतिनिधि के तौर पर जा चुके हैं। 71 वर्षीय पटेल 1977 से लेकर 1989 के बीच गुजरात से 3 बार लोकसभा चुनाव जीते थे वहीं वह 5 बार राज्यसभा के सदस्य भी रह चुके हैं।
71 वर्षीय अहमद पटेल ने अपने लंबे राजनीतिक करियर में गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ काम किया है। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी , सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी भी राजनीतिक सलाहों के लिए अहमद पटेल पर भरोसा करते थे और इनकी बात को गौर से सुना करते थे।
वरिष्ठ पत्रकार और लंबे समय तक दिल्ली की राजनीतिक घटनाओं पर सक्रिय रिपोर्टिंग करने वाले संतोष पाठक ने बताया कि, ” अहमद पटेल की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वो सबके भाई थे। मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान जहां तमाम दिग्गज मंत्रियों के लिए वो AP- अहमद भाई थे वहीं पार्टी के तमाम छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं के लिए भी वो AP – अहमद भाई ही थे। भाजपा में उनके धुर विरोधी भी उन्हें अहमद भाई ही कहा करते थे और पत्रकारों के लिए तो वो हमेशा अहमद भाई ही रहे। अहमद पटेल हमेशा दूसरों की मदद करने और संवाद के लिए तैयार रहते थे। राजनीतिक शत्रुता और कटुता को उन्होंने कभी भी अपने व्यक्तिगत जीवन में कोई स्थान नहीं दिया।”
अहमद पटेल को विनम्र श्रद्धांजलि।
]]>छठ पूजा अपने आप में कोई धार्मिक पर्व नहीं है बल्कि यह उस प्राचीन सनातनी परंपरा और आस्था का अंग है जिसने लंबे समय तक दुनिया का मार्गदर्शन किया था और जिसकी वजह से भारत को विश्वगुरु की उपाधि प्राप्त थी। दरअसल , दुनिया की तमाम प्राचीन सभ्यताएं चाहे वो मिश्र की सभ्यता हो या यूनान की प्राचीन सभ्यता, इन सबने आस्था और परंपरा के संदर्भ में प्राचीन भारतीय सनातनी परंपरा का ही अनुसरण किया है।
सनातनी धर्म को मानने वाले लोग आदिम काल बल्कि एक मायने में उससे सदियों पहले से ही प्रकृति की पूजा करते रहे हैं, समस्त सृष्टि की पूजा करते रहे हैं। आस्था के इस दौर में लोग सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी ,जल, अग्नि, वायु, पेड़ जैसे जीवनदायनी प्राकृतिक उपहारों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए इनकी आराधना किया करते थे। ये तमाम प्राकृतिक उपहार , मनुष्य के जीवन के लिए अनिवार्य तत्व है इसलिए इनकी आराधना करते समय मनुष्य के मन में श्रद्धा, समर्पण और आस्था जैसे भाव हुआ करते थे।
इसके बाद समय तेजी से बदलने लगा। युग बदलने लगे। प्राचीन उन्नत विज्ञान की जगह आधुनिक विज्ञान ने ले ली। प्राकृतिक उपहारों का दोहन तेजी से बढ़ने लगा। आधुनिक विज्ञान खासकर पश्चिमी सभ्यता पर आधारित आधुनिक विज्ञान के पैरोकारों ने जीवन और प्रकृति के अभिन्न आपसी सिद्धान्तों के बीच बने आस्था के डोर को काटना शुरु कर दिया । इन परंपराओं का मजाक उड़ाना शुरु कर दिया। लेकिन इसके बावजूद कुछ तो बात है कि भारत की अधिकांश जनसंख्या अब भी सनातनी परंपरा से जुड़ी हुई है और छठ इसी का एक प्रतीक है।
छठ और भगवान सूर्य
छठ का यह महापर्व भगवान सूर्य, उषा ,प्रकृति, जल और वायु को समर्पित है। वैसे तो आदिकाल से ही सूर्य की पूजा और उपासना संसार की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में अलग-अलग प्रकार से होती रही है क्योंकि सूर्य के बिना धरती पर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। भगवान सूर्य धरती पर जीवन की उत्पत्ति, अस्तित्व और विकास का स्रोत है। यह धरती पर पल रहे तमाम जीवन और ऊर्जा का स्रोत है। यह अंधेरे पर मनुष्य जाति की जीत का प्रतीक है। भारत में भी भगवान सूर्य की पूजा सृष्टि के आरंभ से ही की जाती रही है। ऋग्वेद के सूक्तों में भी भगवान सूर्य की पूजा का विशेष उल्लेख किया गया है लेकिन वास्तव में ऋग्वेद से पहले ( सृष्टि के आरंभकाल ) से ही मनुष्य भगवान सूर्य और प्रकृति से मिले हर जीवनदायनी उपहार की आराधना करता रहा है। भारत में कोणार्क ( ओडिशा ) , उलार्क सूर्य मंदिर ( बिहार ), पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर, औरंगाबाद ( बिहार ) से लेकर झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, राजस्थान और जम्मू कश्मीर सहित देश के लगभग हर हिस्से में भगवान सूर्य को समर्पित अनगिनत प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिर है।
इतिहासकारों के मुताबिक , भारतीय इतिहास के स्वर्णिम मगध काल के दौरान सूर्य पूजा की प्राचीन परंपरा ने और जोर पकड़ा इसलिए मगध क्षेत्र के लोगों पर सूर्य पूजा की प्राचीन परंपरा का प्रभाव ज्यादा दिखाई देता है। शायद इसलिए , आधुनिक भारत के वर्तमान दौर में बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में छठ का यह महापर्व अधिक लोकप्रिय है।
धार्मिक नहीं सनातनी व्रत का त्योहार है छठ
यह बिल्कुल सही है कि छठ का यह महापर्व मुख्यतः बिहार , बिहार से अलग होकर बने झारखंड और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में रहने वाले लोगों का पर्व है। लेकिन आज यह महापर्व भौगोलिक सीमाओं के सारे बंधन तोड़ कर ग्लोबल हो चुका है। बिहार , झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश की सीमाओं के बंधन को तोड़ कर यह महापर्व अब कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक मनाया जा रहा है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि , छठ का महापर्व अब राष्ट्रीय सीमाओं से भी परे जाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। दुनिया के जिस हिस्से में भी बिहार और उत्तर प्रदेश से जुड़े लोग रह रहे हैं , वहां-वहां वो लोग छठ पूजा की अवधारणा और मान्यताओं को स्थापित करने में जाने-अनजाने जुटे हुए हैं।
छठ का यह महापर्व केवल हिन्दू ही नहीं मनाता है , बल्कि लंबे समय से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमान भी सूर्य भगवान को समर्पित यह त्योहार जोशो-खरोश और आस्था के साथ मनाते रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से हम यह लगातार देख रहे हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में भी , पश्चिमी उत्तर प्रदेश से जुड़े जाट-गुर्जर और मुसलमान बड़े पैमाने पर छठ का त्योहार मना रहे हैं क्योंकि छठ का यह महापर्व किसी धर्म का प्रतीक नहीं है। यह महापर्व प्राचीन भारतीय सनातनी परंपरा का अभिन्न अंग है। वास्तव में यह महापर्व , धरती पर जीवन को संभव, सुगम और सरल बनाने वाले प्राकृतिक उपहारों के प्रति कृतिज्ञता जताने का पर्व है।
प्रकृति , प्राचीन परंपरा , सनातनी आस्था और छठ
छठ महापर्व की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें किसी विशेष देवता या भगवान की पूजा नहीं होती । न ही इस पूजा के लिए किसी मंदिर या पुजारी की जरूरत पड़ती है। इस महापर्व में सिर्फ व्रती होते हैं और प्रकृति होती है। इस व्रत में, व्रती तीन दिनों तक अन्न और जल का त्यागकर अपने शरीर को कष्ट देते हैं। खास बात यह है कि स्त्री और पुरुष , दोनों ही यह व्रत कर सकते हैं।
प्राचीन सनातनी परंपरा का अब शायद एकमात्र त्योहार छठ ही बचा रह गया है जो आज भी पूरी तरह से प्रकृति पर ही निर्भर है। मिट्टी के चूल्हे पर प्रसाद , गेहूं को पीसकर ठेकुआ, कसार, गुड़ और चावल का खीर, गन्ना, टाव,नींबू, नारियल, सरीफा, शकरकंद, केला, पानी फल, बांस निर्मित सूप- टोकरी और सुमधुर लोकगीत। एक-एक चीज पूरी तरह से प्रकृति से जुड़ी हुई है।
इसलिए तो छठ के इस पर्व को सनातनी परंपरा का महापर्व कहा जाता है।
]]>आधुनिक विश्व के सबसे प्राचीन और ताकतवर लोकतांत्रिक देश का अगला राष्ट्रपति कौन होगा , इसे लेकर तस्वीर अब पूरी तरह से साफ हो गई है। हालांकि इस बार चुनावी प्रक्रिया और मतगणना के दौरान अमेरिकी जनता और वहां के राजनेताओं को एक नए तरह के विवादित और कटु दौर का सामना करना पड़ा लेकिन आखिरकार लोकतंत्र की जीत हुई । अमेरिकी जनता ने यह साफ कर दिया कि वो अगले 4 साल के लिए अपनी किस्मत का फैसला करने का अधिकार वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से छीनकर डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडेन को दे रहे हैं।
कई नए रिकार्ड के साथ अमेरिका की कमान संभालेंगे बाइडेन
77 वर्षीय बाइडेन अमेरिकी इतिहास के सबसे उम्रदराज राष्ट्रपति होंगे। इससे पहले यह रिकार्ड डोनाल्ड ट्रंप के नाम था, जो 70 वर्ष की उम्र में 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति बने थे। बाइडेन की इस चुनावी जीत के साथ ही डोनाल्ड ट्रंप पिछले 3 दशक के अमेरिकी इतिहास के ऐसे राष्ट्रपति बन गए हैं जो राष्ट्रपति रहते हुए अपना चुनाव हारे हो। इससे पहले 1992 में जॉर्ज बुश सीनियर राष्ट्रपति रहते हुए अपना चुनाव बिल क्लिंटन से हार गए थे। इसके बाद बिल क्लिंटन , जॉर्ज बुश जूनियर और बराक ओबामा ने फिर से चुनाव जीता था। ये तीनों लगातार 2 बार चुनाव जीतकर 8-8 वर्ष तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे थे। सबसे दिलचस्प तथ्य तो यह है कि अमेरिका के पिछले 100 वर्षों के इतिहास में अब तक सिर्फ 4 राष्ट्रपति ही ऐसे हुए हैं , जिन्हे अपने दूसरे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।
120 सालों में हुआ सर्वाधिक मतदान
अमेरिका 4 जुलाई , 1776 को एक देश के रूप में आजाद हुआ था। आजादी के बाद से ही अमेरिका ने कठोर लोकतंत्र का रास्ता चुना। अमेरिकी संविधान कितनी कठोर प्रक्रिया का पालन करता है इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब दुनिया विश्व युद्ध में उलझी हुई थी तब भी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव रद्द नहीं हुए थे। इस बार का चुनाव इस मायनें में काफी खास रहा कि पहली बार अमेरिकी मतदाताओं ने इतनी बड़ी तादाद में वोट किया। इस बार अमेरिका के 16 करोड़ से ज्यादा लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। 120 सालों के अमेरिकी इतिहास में यह पहला ऐसा चुनाव है , जिसमें सबसे अधिक मतदान हुआ। 120 साल पहले 1900 के चुनाव में 73 फीसदी से ज्यादा मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। इस बार 67 फीसदी से ज्यादा अमेरिकी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है।
भारत ने बाइडेन को दी बधाई – दोनो देशों के रिश्तों में क्या आएगा बदलाव ?
डोनाल्ड ट्रंप की चुनावी हार के बाद से ही भारत-अमेरिकी संबंधों को लेकर कई तरह की चर्चाएं चल रही है। भारत के अंदर एक बड़ा तबका ट्रंप की हार को नरेंद्र मोदी की हार के तौर पर प्रचारित कर रहा है। यह राजनीतिक आरोप लगाया जा रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप का चुनावी प्रचार करके प्रधानमंत्री मोदी ने जो गलती की थी , उसका खामियाजा अब भारत को उठाना पड़ सकता है।
लेकिन क्या वाकई ऐसा होने जा रहा है ? क्या वाकई अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे का असर भारत-अमेरिकी संबंधों पर नकारात्मक ढंग से पड़ने जा रहा है ? क्या वाकई जो बाइडेन भारत के प्रति अमेरिका की नीति में कोई बड़ा बदलाव करने की सोच रहे हैं ? दरअसल , ऐसा कहने वालों को न तो अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक परंपरा का ज्ञान है और न ही जो बाइडेन के इतिहास का। राजनीतिक तौर पर जिस तरह के भी आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाएं लेकिन दो देशों का आपसी संबंध जब निर्धारित होता है तो उसके पीछे कई तरह की वजहें होती हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बाइडेन के साथ अपनी तस्वीर को सोशल मीडिया पर शेयर करते हुए जिस अंदाज में अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति को बधाई दी है , उससे भविष्य की कहानी का अंदाजा तो हो ही रहा है।
जो बाइडेन का अनोखा इतिहास और भारत
अमेरिका में ज्यादातर राष्ट्रपति ऐसे बने हैं जिन्हे पहले से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का कोई व्यवहारिक अनुभव नहीं हुआ करता था। इसलिए कई बार अमेरिकी राष्ट्रपति के बारे में यह मजाक में कहा भी जाता है कि 4 वर्ष के अपने पहले कार्यकाल में वो जो सीखते हैं उसी को 4 वर्ष के दूसरे कार्यकाल में अमली-जामा पहनाते हैं। इस मामले में जो बाइडेन को अमेरिकी इतिहास का अनोखा राष्ट्रपति कहा जा सकता है।
बाइडेन 2008 में अमेरिका के उपराष्ट्रपति चुने गए थे। 2012 में अमेरिकी जनता ने उन्हे दोबारा अपना उपराष्ट्रपति चुना था। बराक ओबामा के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान 8 वर्षों तक बाइडेन ने उपराष्ट्रपति के तौर पर अमेरिकी प्रशासन के कामकाज के तौर-तरीकों को गहराई से देखा है, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को गहराई से समझा है और उन्हे एशिया में शांति की अहमियत और भारत के प्रभाव का अंदाजा बखूबी है। इसलिए दोनो देशों के संबंधों में 360 डिग्री जैसा कोई बड़ा बदलाव आएगा , इसकी कल्पना करना भी बेमानी है।
चीन-पाकिस्तान-आतंकवाद के मुद्दें पर मिलकर ही लड़ना होगा भारत और अमेरिका को
70 के दशक में सोवियत संघ के साथ चल रहे शीत युद्ध में उसे मात देने के लिए अमेरिका ने चीन के साथ अपने संबंधों को बढ़ाना शुरू किया। चीन को संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता दिलवाई। नाटो के देशों को चीन के साथ राजनयिक और व्यापारिक संबंध बनाने और बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के कुछ सालों बाद ही अमेरिका को यह समझ में आ गया था कि चीन आने वाले दिनों में सोवियत संघ से भी बड़ा खतरा बनने जा रहा है । पहले आतंकवाद ने अमेरिका की चुनौती बढ़ाई और फिर चीन के आक्रामक व्यापारिक विस्तार ने अमेरिका की हालत खराब कर दी। रही-सही कसर कोरोना काल ने निकाल दी।
वैसे तो अमेरिका 1950 के बाद से ही भारत को लगातार अपने पाले में लाने की कोशिश करता रहा है लेकिन गुट-निरपेक्ष देशों का संगठन बनाकर भारत ने उस समय दुनिया में जो अपनी अलग पहचान बनाई , उसका फायदा भारत को लगातार मिला है । चीन से धोखा खाने के बाद अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया के कई ताकतवर देश भी अब भारत की तरफ उम्मीदों से देख रहे हैं। जापान सहित एशिया के कई देश चीन की विस्तारवादी नीति से परेशान है तो वहीं ब्रिटेन , जर्मनी, फ्रांस जैसे यूरोपीय देश आतंकवाद से भी त्रस्त है और चीन की व्यापारिक नीति से भी। अमेरिका भी इसी तरह की समस्या से जुझ रहा है । अमेरिका समेत इन तमाम महाशक्तियों को इस बात का अंदाजा बखूबी है कि भारत को साथ लिए बिना इस लड़ाई को जीतना तो दूर की बात है , लड़ना भी संभव नहीं है।
भारतीय मूल की कमला हैरिस का उपराष्ट्रपति बनना
उपराष्ट्रपति का चुनाव जीत कर कमला हैरिस ने इतिहास रच दिया है। वो अमेरिकी इतिहास में पहली महिला हैं जो उपराष्ट्रपति का पद संभालने जा रही है। यह भी पहली बार हो रहा है कि भारतीय मूल का कोई व्यक्ति अमेरिका के इतने बड़े पद पर बैठने जा रहा है । हालांकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को निर्धारित करते समय कोई भी व्यक्ति अपने देश के हितों का ही ज्यादा ध्यान रखता है और ऐसे में निश्चित तौर पर कमला हैरिस की पहली प्राथमिकता अमेरिकी हितों की रक्षा करना ही होगी लेकिन हाल के वर्षों में हमने देखा है कि अमेरिकी विदेश नीति का निर्धारण करते समय उपराष्ट्रपति भी बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे में निश्चित तौर पर भारत-अमेरिकी संबंधों की भविष्य की इबारत लिखने में भारतीय मूल की कमला हैरिस भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी ही।
हालांकि अतंर्राष्ट्रीय कूटनीति और राजनीति में सबसे अधिक स्थापित मान्य सिद्धांत सिर्फ दो ही है- पहला , कोई भी देश स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता और दूसरा अपने देश का हित सर्वोपरि होता है और होना ही चाहिए। ऐसे में निश्चित तौर पर भारत-अमेरिका के आपसी संबंध लगातार पारस्परिक हितों की कसौटी पर कसे ही जाते रहेंगे और इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
]]>पिछले कुछ महीनों में यूरोप के अलग-अलग देशों में कट्टरपंथी हमलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हाल ही में फ्रांस में एक फ्रेंच टीचर की हत्या महज इसलिए कर दी गई क्योंकि उन्होंने क्लास में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाते हुए बात की थी। एक षड्यंत्र के तहत योजना बनाकर मुस्लिम कट्टरपंथियों ने फ्रेंच टीचर की हत्या की और जब इस मसले पर खुलकर फ्रांस के राष्ट्रपति ने बयान दिया और एक्शन लिया तो मुस्लिम देशों के खून में उबाल आ गया। फ्रांस में कट्टरपंथी आतंकवादियों ने हमला किया और तमाम मुस्लिम देशों में फ्रेंच उत्पादों के बहिष्कार का अभियान शुरू हो गया।
फ्रांस का मसला अभी थमा भी नहीं था कि सोमार की देर शाम को आतंकवादियों ने ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना को निशाना बना डाला। वियना के उस हिस्से में गोलियां बरसाई गईं जो वहां के अमीर वर्ग का इलाका माना जाता है। राजधानी के इसी हिस्से में सरकारी कार्यालय और तमाम सांस्कृतिक केंद्र भी है।
यूरोप में पिछले एक सप्ताह के भीतर फ्रांस के बाद यह दूसरा आतंकी हमला है। ऐसे में यह सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या यूरोपीय देशों में इस्लामिक आतंकवाद फिर से सर उठाने लगा है ? क्या यूरोपीय देशों ने खुले दिल से मुस्लिम शरणार्थियों को अपने देश में शरण देकर गलत किया ? अरब देशों खासकर सीरिया में जारी संकट के दौरान लाखों मुसलमानों को अपनी जमीन , अपना देश छोड़कर भागना पड़ा था। उस समय कुछ यूरोपीय देशों को छोड़कर ज्यादातर ने मानवता के आधार ओर इन मुस्लिम शरणार्थियों को अपने यहां जगह दी। रहने को छत दिया , जिंदा रहने को भोजन दिया और आज यही कट्टरपंथी इन्ही देशों के नागरिकों को निशाना बना रहे हैं , इसलिए यह सवाल तो खड़ा हो ही रहा है कि क्या मुस्लिम शरणार्थियों को शरण देकर यूरोपीय देशों ने गलत किया ?
यूरोपोल की रिपोर्ट ने खोली पोल
यूरोपीय यूनियन के देशों द्वारा कानून व्यवस्था को बनाए रखने को लेकर मिलकर गठित किए गए यूरोपोल की रिपोर्ट इस संबंध में काफी चौंकाने वाले खुलासे करती है। यूरोपोल की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे 20-22 साल के युवा आईएस के चुंगल में फंस रहे हैं। इन आतंकियों का मकसद समाज में भय पैदा करना, फूट डालना, एक खास समुदाय के लोगों का ध्रुवीकरण करना और लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करना है और इसके लिए ये किसी भी हद तक जाने को तैयार है।
इस यूरोपीय एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक गत वर्षों में यूरोप के 13 देशों में 119 आतंकी हमले किए गए। आतंकी गतिविधियों के लिए यूरोप के 19 देशों में 1,004 लोगों को गिरफ्तार किया गया । सबसे ज्यादा बेल्जियम, फ्रांस , इटली, स्पेन और ब्रिटेन में गिरफ्तार किए गए। इस साल 16 लोगों को जेहादी घटनाओं में अपनी जान गंवानी पड़ी।
ऑस्ट्रिया पर हमले का बड़ा संदेश
ऑस्ट्रिया के वियना में हुआ आतंकी हमला तो कई सवाल खड़े करता है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ऑस्ट्रिया ने अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों के तर्ज पर किसी भी अन्य देश के आंतरिक मामलों में शायद ही कभी हस्तक्षेप किया हो। अन्य कई यूरोपीय देशों की तरह इस देश में बंदूक की संस्कृति भी नहीं है। ऐसे में इस देश पर आतंकी हमला करने का फिलहाल तो एकमात्र मकसद दहशत फैलाना ही नजर आ रहा है। दहशत फैलाना कि हम तुम्हारे देश में , तुम्हारे पड़ोस में आ चुके हैं और अब सब कुछ हमारे हिसाब से ही चलेगा।
यूरोपीय देशों में मुसलमानों की आबादी
शरणार्थियों के संकट के समय फ्रांस ने खुलकर मुस्लिम शरणार्थियों का स्वागत किया था। तमाम यूरोपीय देशों की बात की जाए तो वर्तमान में सबसे ज्यादा मुस्लिम जनसंख्या फ्रांस में ही है। फ्रांस में 68 लाख के लगभग मुस्लिम रहते हैं। इसके बाद जर्मनी का नंबर आता है , जहां मुस्लिम लोगों की संख्या 54 लाख के लगभग है। मुस्लिम जनसंख्या के मामले में ब्रिटेन , इटली, नीदरलैंड, स्पेन और स्वीडन का नंबर फ्रांस और जर्मनी के बाद ही आता है।
इस्लामोफोबिया और यूरोपीय देश
इस्लामोफोबिया – इस शब्द की आड़ लेकर मुस्लिम कट्टरपंथ को लगातार जायज ठहराने का एक अभियान चलाया जा रहा है। लेकिन वास्तविकता सबको नजर आ रही है। आंख बंद कर लेने मात्र से इस संकट से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। यह सोचने वाली बात है कि पिछले एक दशक से यूरोपीय देशों को बार-बार आतंकी हमलों का सामना क्यों करना पड़ रहा है ? जिन देशों में जिस तादाद में मुस्लिम आबादी बढ़ती है उन देशों में उसी तादाद में कानून व्यवस्था और शांति को खतरा क्यों और कैसे पैदा हो जाता है ?
फ्रांस में जो कुछ हुआ , वह दुनिया ने देखा। ऑस्ट्रिया में जो हुआ , उसकी भारत समेत तमाम देशों ने निंदा की। भारत समेत दुनिया के कई देश संकट की इस घड़ी में फ्रांस के साथ खड़े हैं।
अन्य यूरोपीय देशों की हालत
किसी दौर में दुनिया भर में राज करने वाला ब्रिटेन भी कई बार इन कट्टरपंथियों का आतंकी हमला झेल चुका है। डेनमार्क और स्वीडन जैसे शांतिप्रिय देशों को भी मुस्लिम कट्टरपंथियों ने त्रस्त कर रखा है। मिडिल ईस्ट के आतंक से अपनी जान बचाकर डेनमार्क में शरण लिए हुए ये लोग बड़े पैमाने पर यहां मस्जिदें बना रहे हैं। ये अब यहां की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी बन गए हैं और अपने लिए अलग कानूनों की मांग कर रहे हैं जबकि डेनमार्क एक धर्मनिरपेक्ष देश है।
स्पेन की राजधानी मैड्रिड , बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स समेत शायद ही यूरोप का कोई ऐसा देश अब बचा हो जिसने मुस्लिम शरणार्थियों को अपने यहां शरण दी हो और वहां शांति हो। पिछले एक दशक में यूरोपीय देशों में मुस्लिमों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है और इसी के साथ उनकी चिंताओं में भी इज़ाफ़ा हो रहा है।
मुस्लिम देशों और मुस्लिम स्कॉलरों का दोहरा रवैया
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रो ने जब मुस्लिम कट्टरपंथियों को सच का आईना दिखाया तो मुस्लिम देशों की तरफ से कड़ी प्रतिक्रिया सामने आई। मुस्लिम देशों में फ्रेंच सामानों के बहिष्कार का अभियान चलाया गया जिसे वहां की सरकारों ने भी समर्थन दिया। लेकिन इन तथाकथित मुस्लिम देशों का रवैया भी बड़ा अजीब है और दोहरा है। जब मुस्लिम शरणार्थियों के सामने जान का संकट था । लाखों मुसलमान देश छोड़ने को मजबूर थे तब इन्ही मुस्लिम देशों ने अपने ही मुस्लिम भाई-बहनों को शरण देने से इंकार कर दिया। अपने-अपने बॉर्डर पर सेनाओं की तैनाती कर दी ताकि ये मुस्लिम शरणार्थी उनके देश में न घुस पाए और अब ये मुस्लिम हितों की बात कर रहे हैं। आपको एक दिलचस्प तथ्य बता दें कि शरणार्थियों को शरण देने के लिए 1951 में जेनेवा शरणार्थी समझौता किया गया था लेकिन दुनिया के सभी 58 अरब – इस्लामी देशों ने अभी तक इस अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी समझौते पर हस्ताक्षर तक नहीं किया है।
मुस्लिम स्कॉलरों और बुद्धिजीवियों का रवैया तो और भी चिंता में डालने वाला है। ये लोग मुस्लिम आतंकवाद , मुस्लिम कट्टरपंथ पर कुछ भी बोलने से बचते हैं लेकिन इस्लामोफोबिया पर इनके लंबे लंबे लेख आने लगते हैं। शरण देने वालों पर जब हमला होता हैं तो इनकी जुबान तक नहीं हिलती और पीड़ित देश जब जवाब देते हैं तो इन्हें मानवता याद आने लगती है।
ये स्कॉलर आज तक इस बात का जवाब नहीं दे पाए हैं कि हर आतंकवाद की जड़ में कोई न कोई मुस्लिम ही क्यों पकड़ा जाता है ? दुनिया भर के मुस्लिम देश एक साथ खड़े होकर यह क्यों नहीं बोलते कि इस्लाम को बदनाम करने वाले आतंकियों के साथ कोई रहम न बरता जाए और बाकी देशों से पहले हम ही इनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेंगे।
याद रखिए कि इन आतंकवादियों से भी बड़े इस्लाम के दुश्मन वो बुद्धिजीवी है जो इनकी हरकतों पर चुप रह जाते हैं। इस्लामोफोबिया के जिम्मेदार भारत, फ्रांस और ऑस्ट्रिया जैसे पीड़ित देश नहीं है बल्कि वो मुस्लिम देश है जो आतंकियों को पैसा और हथियार देते हैं । अगर जल्द ही मुस्लिम देशों और बुद्धिजीवियों के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया तो दुनिया के तमाम शांतिप्रिय और धर्मनिरपेक्ष देशों में इस समुदाय के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन और अभियान शुरू होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
]]>राज्यसभा में भाजपा ने चलाया ऑपेरशन लोटस
2019 में सत्ता में पुनर्वापसी के कुछ ही समय बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को इसका ज्ञान हो गया था कि राज्यसभा में पार्टी को अपनी सीटें लगातार बढ़ानी चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि विरोधी दलों के सांसदों की संख्या घटे और भाजपा अपने एनडीए के सहयोगी दलों के साथ-साथ बहुमत के करीब पहुंचे।
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने राज्यसभा का अंकगणित बदलने के मकसद से एक अभियान चलाया जिसे पत्रकारिता की भाषा में ऑपेरशन लोटस का नाम दिया गया। इस अभियान के तहत 2019 में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को इस काम पर लगाया गया कि वो विरोधी दलों के सांसदों को अपनी राज्यसभा सदस्यता और पार्टी से इस्तीफा देने के लिए मनाए। ऐसे सांसदों का इस्तीफा स्वीकार हो जाने के बाद भाजपा उन्हें उसी सीट पर अपने उम्मीदवार के तौर पर लड़ाती गई और जीताकर राज्यसभा भेजती गई। 16 जुलाई 2019 को समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर ने राज्यसभा और सपा से इस्तीफा दे दिया। इसके अगले महीने अगस्त 2019 में विरोधी दलों के 3 और राज्यसभा सांसदों ( सपा के सुरेंद्र सिंह नागर, संजय सेठ और कांग्रेस के भुवनेश्वर कालिता ) ने इस्तीफा दे दिया। बीजेपी के अभियान की कामयाबी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिन-जिन सांसदों ने इस्तीफा दिया था वो अपनी-अपनी पार्टी के आलाकमान के काफी करीबी माने जाते थे। लेकिन भाजपा ने उन्हें ऐसा ऑफर दिया कि वो मना नहीं कर सके और आज ये सभी भाजपा सांसद के तौर पर सदन की शोभा बढ़ा रहे है।
बदल गया राज्यसभा का गणित – शीर्ष पर पहुंची भाजपा
भाजपा के ऑपेरशन लोटस को लगातार कामयाबी मिलती गई और नतीजा यह है कि अब राज्यसभा का गणित पूरी तरह से बदल गया है। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी नंबर के मामले में राज्यसभा में अब तक के सबसे ऊंचे शिखर पर पहुंच गई है जबकि इसके विपरीत देश पर सबसे लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस , अपने इतिहास के सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। अंकों के फेरबदल का यह करिश्मा उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की राज्यसभा की 11 सीटों पर आए चुनावी नतीजों से संभव हो पाया है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की राज्यसभा की 11 सीटों के आए नतीजों की वजह से ही भाजपा राज्यसभा में अब तक के शिखर पर पहुंच गई है जबकि इसके विपरीत कांग्रेस की सीटें इतिहास में सबसे कम हो गई हैं।
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